Tuesday, November 15, 2022

मिथिला के तीर्थस्थल

अहिल्या स्थान श्रीमद वाल्मीकि रामायण के बाल-कांड के 48 वे सर्ग में वर्णित कथा - मुनि विश्वामित्र राम एवं लक्छ्मन के साथ मिथिला नरेश जनक की राजधानी जनकपुर जा रहे थे .कुछ दूरी तय करने के बाद उन्होंने एक विराट आश्रम देखा.,जो सुना पड़ा था.जिज्ञासावश रामचंद्र ने विश्वामित्र से पूछा यदपि यह आश्रम इतना भव्य है फिर भी कोई ऋषि-मुनि यहाँ दिख नही रहे.रामचंद्र का प्रश्न सुनकर विश्वामित्र ने बतलाया की यह महर्षि गौतम का आश्रम है एवं इन्द्र - अहिल्या का प्रसंग तथा महर्षि गौतम द्वारा दोनों को श्राप देने की कथा सुनाई.फिर रामचंद्र के चरण -स्पर्श से अहिल्या को उद्धार भी करवाया ,जैसा श्राप का आदेश था. यही स्थान अहिल्या स्थान के नाम से जाना जाता है.1635 ई. दरभंगा के तत्कालीन राजा छत्र सिंह द्वारा एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया था.इस मंदिर में सीता-राम एवं लक्छ्मन के साथ हनुमान तथा अहिल्या- गौतम की स्फटिक मूर्तियाँ विद्यमान है.महाराजा छत्र सिंह ऐसा ही एक विशाल मंदिर सौराठ ग्राम में भी बनवाया था एवं शिव लिंग की स्थापना करवाई थी. सौराठ वही गाँव है जहाँ मैथिल ब्राह्मणों के पंजीकृत विवाह पद्धति का प्राचीन इतिहास है. करीब 50 वर्ष पूर्व दछिण भारत से रामानुज अनुयायिओं की एक टोली सीता-राम सम्बंधित स्थलों की जानकारी लेने के क्रम में यहाँ आये थे. उनलोगों ने अहिल्या उद्धारस्थल पर एक स्तम्भ एवं पिंड का निर्माण करवाया था,यह आज भी मौजूद है. यहाँ आशाराम बापू का आश्रम है जहाँ धार्मिक एवं सामाजिक कार्य होता रहता है. मुख्य मंदिर तो भग्न होने के कगार पर था,लेकिन बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद द्वारा अपने अधीन लेने के बाद अब लोगों की आशा बंधी है कि यह मंदिर अपने भव्य अतीत को पुनः प्राप्त कर सकेगा.इस स्थान के पास ही गौतम कुण्ड है जो खिरोई नदी के तट पर है.यही गौतम ऋषि का आश्रम है.याग्लाव्य मुनि का आश्रम जगवन तथा श्रृंगी मुनि का आश्रम .सब 5 किलो मीटर के दायरे में ही है. अहिल्या स्थान दरभंगा जिला में दरभंगा-सीतामढ़ी रेल पथ के कमतौल स्टेशन से दछिण दिशा में 2 किलो मीटर कि दूरी पर अवस्थित है. यहाँ दरभंगा-मधवापुर राज्य उच्च पथ संख्या 75 से कमतौल एवं टेकटार से भी जाया जा सकता है.

Wednesday, April 15, 2020


भूगोल का गोल
हमसब किसी एक या दो विषय को अधिक पसंद करते हैं और उस विषय को ज्यादा पढ़ते और जानने लगते है| फिर कुछ तो हमें जिंदगी में बस सीखनी ही पड़ती हैं, जैसे गणित और भाषा| इनके बिना गुजरा नहीं हो सकता| कुछ-कुछ विज्ञान भी समझना जरुरी हो जाता है| जब कुछ पुरानी बातें पढ़ते,सुनते या कोई ऐसी सिनेमा देखते है,जैसे पिछले कुछ सालों में प्रदर्शित ‘जोधा-अकबर’, ‘पद्मावत’, ‘बाजीराव मस्तानी’ इत्यादि तो इतिहास में रूचि आने लगती हैं| चुनाव होने वाला होता है और नेतागण की बातें सुनकर लगता है,क्या हमारा समाज इतना पिछड़ा हुआ है, ये महाशय सब ठीक कर देंगे क्या? स्वास्थ और शिक्षा पर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया आजतक? समाजशास्त्र जान लेते है| एक पार्टी चुनाव जीत सरकार बनाती है| मंत्री-प्रधानमंत्री देश-विदेश का दौरा करने लगते है और मंत्री महोदय चुनाव के पहले किया वादा भूल कर समाज के स्थान पर अपने विकास पर ही ध्यान केन्द्रित करते है,तब राजनीतिशास्त्र समझ में आ ही जाता है|
लेकिन भूगोल जानने के लिए आपको पढ़ना या घूमना पड़ता है | कोई और तरीका नहीं है इसे समझने का | २०१४ में मैं जमशेदपुर से हैदराबाद आई| काफ़ी लोग जमशेदपुर नाम सुनकर ऐसे चौंकते जैसे यह शहर इस ग्रह पर नहीं है| एकबार जब मैं जमशेदजी टाटा, टिस्को, टेल्को, टाटा ट्रक के बारें में पड़ोस में रहने वाली महिला को बताने लगी तो उनका कहना था कि टाटा तो विदेशी कंपनी है| फिर झारखंड में कैसे हो सकता है?
एकबार हमलोग ओडिशा गए भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने| जब मेरी ननद को पता चला तो कहने लगी “जब पूरी गए तो रामेश्वरम् भी चले जाते”| कहाँ पूरी और कहाँ रामेश्वरम्? उनके कहने से लग रहा था समुद्र के किनारे-किनारे सब शहर के एक कॉलोनी से दूसरे कॉलोनी जैसा ही होगा|
बहुत कम लोग मिले जो मेरे बिहारी होने का सुनकर बिहार की तारीफ़ करने लगे हो | एकबार किसी वर्कशॉप में एक वरिष्ट शिक्षिका मिली | जब बातों-बातों में उन्हें पता चला कि मैं बिहार से हूँ तो वह बहुत खुश हुई| “क्या बात है! बहुत ख़ुशी हुई” – ऐसा उन्होंने कहा| मेरे साथ जो शिक्षिका थी वो महाराष्ट्र से है, वो कहने लगी मैडम मैं महाराष्ट्र से हूँ और बिहार-महाराष्ट्र आस-पास ही हैं| मैं फिर अचंभित और हतप्रभ!

Wednesday, June 1, 2016

मायका











मायका
संयुक्ता जैसे ही खाने के लिए बैठी , उसने एक –एक करके अपने गहने उतारने शुरू कर दिए | पहले हार,फिर बाजूबंद....कंगन,मांगटीका..सब | 
सबलोग आश्चर्यचकित है...ये ऐसा क्यों कर रही है ?
वेंकटराव विजयनगरम के एक सम्मानित व्यक्ति है | उनकी दो बेटियाँ है, बड़ी श्रीहासा - छोटी संयुक्ता और एक बेटा है श्रीनिवास | श्रीहासा की शादी विजयवाड़ा के एक संभ्रात परिवार में हुआ था | संयुक्ता की शादी दूर के एक मामाजी ने यह कहकर करवाया था कि लड़का का बहुत बड़ा कारोबार है,परन्तु शादी के बाद पता चला कि सिर्फ एक किराने की दुकान है|
दोनों बहनों की आर्थिक स्थिति में ज़मीन-आसमान का अंतर था | इसका एहसास संयुक्ता को मायके आकर ज्यादा होता था | समय के साथ-साथ संयुक्ता के पति ने भी कड़ी मेहनत और लगन से व्यापार को काफी बढ़ा लिया था |
इसबार वह दो सालों बाद मायके आई थी| सबने बहुत उत्साह और सम्मान के साथ उसकी आगवानी की|
उसने गहने उतार कर टेबल पर रख दिया | थाली लेकर नीचे चटाई पर बैठकर खाने लगी| खाते हुए उसने कहा आपसब तो इन गहनों का सम्मान कर रहे है , मैं तो अभी भी वही संयुक्ता हूँ |

प्रवासी







                                         प्रवासी
मैं मंदिर की सीढ़ी पर बैठा बस निहारे जा रहा था |वहाँ से जो भी नज़र आ रहा था | तालाब,खेत,खलिहान,बागीचा,पगडंडी सब बस नज़र में कैद कर लेना चाहता था | अचानक पीछे से आकर केशव ने मेरे कंधे पर हाथ रखा |“चल यार कल केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान चलते है,वहाँ हम अभी साईबेरिया से आये सारस देख सकते है” केशव ने कहा | लेकिन कल सुबह मुझे दिल्ली के लिये निकलना है,मैने उसे भरतपुर जाने से मना कर | प्रवासी शब्द अब मुझे अपना-सा लगने लगा है| 
तीन भाईयों में मैं सबसे छोटा हूँ | बड़े भाई साहब बैंक में कार्यरत है | मंझले भाई साहब गाँव के प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है | स्नातक होने के बाद मैं कानून की पढाई करना चाहता था | परन्तु दोनों भाई-भाभी अक्सर ताना देते “आसान नहीं है वक़ालत करना”|
एकदिन माँ ने एकांत में समझाया “वक़ालत के भरोसे मत बैठ,दिल्ली चला जा,तेरा दोस्त मोहन वही है ना वो तेरी मदद करेगा “ | घर की परिस्थिति देखकर मुझे भी माँ की बात सही लगी |
दिल्ली की जिंदगी एकदम अलग थी | एक छोटे से कमरे में पांच-छह लोग | सुबह उठते ही प्रतिदिन की जंग शुरू हो जाती | पहले पानी से, फिर ट्रैफिक से,फिर फक्ट्री में काम से और सहकर्मी और प्रबंधक से | जब थक-हार कर घर पहुँचता तो लगता चलो आज का दिन तो किसी तरह बीत गया | गाँव,घर,आँगन सब पीछे छूट गया | एक महानगर में अकेला पड़ गया | दिल्ली में मिलने वाले लोग पूछते है “कहाँ से हो ?” |
सालभर बाद गाँव आया हूँ | हाल-चाल और तनख्वाह पूछने के बाद एक ही सवाल रहता है उनका कि मैं वापस दिल्ली कब जा रहा हूँ |

Monday, November 21, 2011

कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे वन माहि| ऐसे घट-घट राम है दुनिया देखे नाहि|| ..........................एकबार ईश्वर ने सब प्राणियों को बुलाया....परन्तु मनुष्य को जन बुझकर नही बुलाया.ईश्वर परमसत्य को मनुष्य के पहुँच से बाहर रखना चाहते थे.उन्होंने सभी प्राणियों से सुझाव माँगा कि परमसत्य को कहा छुपाया जाए.सबने अलग-अलग सुझाव दिए,लेकिन हर जगह मनुष्य की पहुँच स्थापित हो रही थी.बहुत देर बाद एक प्राणी ने कहा क्यों न परमसत्य को इन्सान के दिल में रखा जाए.उस प्राणी ने कहा कि इन्सान हर स्थान पर परमसत्य को तलासेगा,बस अपने अन्दर ही नही झाकेगा. यह बात एकदम सत्य है.....हम ईश्वर के खोज में भटकते रहते है....लेकिन अपने आत्म में जो बसा है उसे नही देख पाते.हमारी हालत कस्तूरी मृग की तरह है...जिस सुगंध की तलाश में वो भटकती रहती है.....वो उसके अन्दर ही बसी है.

Friday, November 18, 2011

आज जो देश की दुर्दशा है उसका बखान शब्दों में नहीं किया जा सकता है.देश की बागडोर एक ऐसे आदमी के हाथ सौपा गया जो खुद तो इमानदार है लेकिन अपने साथियों द्वारा देश की सम्पदा के लुट में उनके ऊपर नियंत्रण नहीं कर सका बल्कि अपने टीम में वकीलों की टोली बनाकर उनके बचाव में तरह-तरह के शब्द जाल बनाकर भरमाता है .किसी पर प्रधानमंत्री का नियंत्रण नहीं है.जिसको जो मन में आता है उसे बोलने के लिए उत्साहित किया जाता है.कोई कहता है कि इतने बड़े घोटाले में सरकारी सम्पति को कोई नुकशान नही हुआ.कभी राष्ट्रमंडल खेल घोटाला में उसके अध्यक्ष एवं दिल्ली सरकार को बरी किया जाता है.किसी को भी बेज्जत करना मामूली सी बात है.कभी अन्ना को' तुम', 'चोर','दगाबाज' कहा जाता है.कभी देश में आतंकबादी हमला होता है,सरकारी मशीनरी जाँच भी शुरू न कर पाए महाशयजी को बहुशंख्यक लोगो के हाथ नज़र आने लगते है.अब अन्ना के आन्दोलन में अमेरिका का हाथ नज़र आ रहा है.कभी रामदेव बाबा जैसा हश्र करने की बात कहते है.सरकार का मुखिया गांधीजी के तीन बंदरो की तरह आँख से नही देखना,कान से नही सुनना और मुंह से नही बोलने का रोले अदा करते है.
वश्तुस्थिति यही है कि नाव प्रधानमंत्रीजी के पास है उसपर लादे जीव-जंतु किसी दुसरे व्यक्ति के नामित है.जिनपर अनुशासन ,नियम कुछ भी लागु नही होता एवं पतवार मालिक के हाथ में है.प्रधानमंत्रीजी या तो आप पतवार मांग कर लीजिये या गद्दी छोर दीजिये.देश को बिना पतवार के नाविक कि तरह समुद्र में न डुबाये.मेरी यही प्रार्थना है.

प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो.........

प्रेम ईश्वर की देन है,एक भाव है.जिस तरह ईश्वर हमारे शरीर के निर्माण करता है ठीक उसी प्रकार किसी के प्रति आत्मिक प्रेम भी ईश्वर की ही देन है,जिसे हम बदल नही सकते.हम चाहकर प्रेम नही कर सकते है.कभी मज़बूरी वश करना भी पड़े तो उसका बनावटीपन सबको दिखता है.प्रेम किसी भी जीव से हो सकता है,किसी रिश्ते की भी ये मुंहताज नही है.
जब एक स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम पनपता है तो उसकी मंजिल होती है शादी.हमारे देश में स्त्री-पुरुष को प्रेम करने के लिए इस बंधन में बंधना जरुरी माना जाता है.ये सही है या गलत इसपर हम सबकी राय भिन्न-भिन्न होगी.भारतीय परंपरा के अनुसार विवाह एक सामाजिक बंधन है.जिसमे स्त्री-पुरुष का ही नहीं अपितु दोनों के परिवारों का भी मिलन होता है.समाज की सबसे बड़ी कुरीति जाति-प्रथा और कभी-कभी आर्थिक स्थिति में असामान्यता से भी प्रेम करने वालों को गुजरना पड़ता है.प्रेम तो निश्छल -निःस्वार्थ भावना है जिसका जाति या धन-दौलत से कोई लेना-देना नहीं है,क्योकि ये सब तय करने के बाद प्रेम हो ही नहीं सकता.यह तो आत्मा से उत्त्पन हुई भावना है.
समाज में नित-नए बदलाव हो रहे है,हर वर्ग के लोग शिक्षा के महत्तव समझने लगे है.हमारा दायरा बढ़ रहा है.लेकिन हम अपने-आप को बदलने में बहुत समय ले रहे है.हम पढ-लिख कर जब किसी मनचाहे मुकाम को पाने के बाद और ज्यादा रक्छात्मक रवैया अपनाते है.अपने -आप सपना बुनते है एवं उसे एक खुँटी मे टांग देते है.और सिर्फ उसी को सच् मानलेते है.समाज का विरोध सहने की शक्ति हम मे नही है.जबकी हम जानते है बदलाव का तो विरोध होता ही है.प्रेम किसी खुँटी कि मुंहताज नही है.ईश्वर की देन के साथ् खिलवार न करे........
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसुस करो..... प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो.........