प्रेम ईश्वर की देन है,एक भाव है.जिस तरह ईश्वर हमारे शरीर के निर्माण करता है ठीक उसी प्रकार किसी के प्रति आत्मिक प्रेम भी ईश्वर की ही देन है,जिसे हम बदल नही सकते.हम चाहकर प्रेम नही कर सकते है.कभी मज़बूरी वश करना भी पड़े तो उसका बनावटीपन सबको दिखता है.प्रेम किसी भी जीव से हो सकता है,किसी रिश्ते की भी ये मुंहताज नही है.
जब एक स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम पनपता है तो उसकी मंजिल होती है शादी.हमारे देश में स्त्री-पुरुष को प्रेम करने के लिए इस बंधन में बंधना जरुरी माना जाता है.ये सही है या गलत इसपर हम सबकी राय भिन्न-भिन्न होगी.भारतीय परंपरा के अनुसार विवाह एक सामाजिक बंधन है.जिसमे स्त्री-पुरुष का ही नहीं अपितु दोनों के परिवारों का भी मिलन होता है.समाज की सबसे बड़ी कुरीति जाति-प्रथा और कभी-कभी आर्थिक स्थिति में असामान्यता से भी प्रेम करने वालों को गुजरना पड़ता है.प्रेम तो निश्छल -निःस्वार्थ भावना है जिसका जाति या धन-दौलत से कोई लेना-देना नहीं है,क्योकि ये सब तय करने के बाद प्रेम हो ही नहीं सकता.यह तो आत्मा से उत्त्पन हुई भावना है.
समाज में नित-नए बदलाव हो रहे है,हर वर्ग के लोग शिक्षा के महत्तव समझने लगे है.हमारा दायरा बढ़ रहा है.लेकिन हम अपने-आप को बदलने में बहुत समय ले रहे है.हम पढ-लिख कर जब किसी मनचाहे मुकाम को पाने के बाद और ज्यादा रक्छात्मक रवैया अपनाते है.अपने -आप सपना बुनते है एवं उसे एक खुँटी मे टांग देते है.और सिर्फ उसी को सच् मानलेते है.समाज का विरोध सहने की शक्ति हम मे नही है.जबकी हम जानते है बदलाव का तो विरोध होता ही है.प्रेम किसी खुँटी कि मुंहताज नही है.ईश्वर की देन के साथ् खिलवार न करे........
सिर्फ एहसास है ये रूह से महसुस करो..... प्यार को प्यार ही रहने दो कोइ नाम न दो.........
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